प्रभु की तमाम कृतियों में मानव की रचना श्रेष्ठतम कृति है। बाकी सब योनियों की तुलना में मानव को प्रभु परमात्मा ने मन और बुद्धि प्रदान की, जिससे मनुष्य अपने जीवन को सुखों के साधनों से संवारता गया।
प्रभु की तमाम कृतियों में मानव की रचना श्रेष्ठतम कृति है। बाकी सब योनियों की तुलना में मानव को प्रभु परमात्मा ने मन और बुद्धि प्रदान की, जिससे मनुष्य अपने जीवन को सुखों के साधनों से संवारता गया।
यह प्रकृति का नियम है जो भी वस्तु अस्तित्व में आती है, चाहे वे पेड़ पौधे के रूप में अथवा पशु, पक्षी, जानवर या मानव हर वस्तु का अन्त निर्धारित है।
जीवन सबको प्रिय है और मृत्यु का एहसास भी इंसान को भयभीत करता है। परन्तु यही कटु सत्य भी है। जन्म और मृत्यु के बीच जीवन काल का उद्देश्य क्या है? जीवन की उलझनों में यह महत्वपूर्ण कार्य गौण हो जाता है। बड़े भाग्य से यह मनुष्य जन्म मिला है, जिसमें यह आत्मा जो परम पिता परमात्मा का अंश है और अपने मूल अस्तित्व से जन्मों-जन्मों से अलग होकर इसमें विलीन होने के लिए भटक रही है, इस परमात्मा का ज्ञान पाकर इसे जानकर अपने निज घर की पहचान करके जनम-मरण के बंधन से निजात पा सकती है। मोक्ष, मुक्ति को प्राप्त कर सकती है। आदि ग्रंथ में लिखा हैः-
जम जम मरे, मरे फिर जमे
बहुत सजाए पया देस लमे।
कादर करीम न जातो कर्ता,
तिल पीड़े ज्यों धानियां।।
भाव बार-बार जनम मरण के बंधन में जकड़ी हुई यह आत्मा बहुत लम्बी सजा भोगती है। अगर इस कर्ता को अर्थात् कुदरत की रचना करने वाले कादर की जानकारी का ज्ञान नहीं प्राप्त करते वे बार-बार चैरासी के चक्कर के जनम और मृत्यु के बंधन में बंधे रहते हैं।
परमात्मा को नहीं जाना तो घानी में जैसे तिल से तेल निकाला जाता है, वो अवस्था होगी, जो बार-बार जन्म लेने की। इसीलिए कहा है
यही तेरा अवसर यही तेरी बार
अवतार वाणी में शहनशाह अवतार सिंह जी लिखते हैं।
मानुष जन्म आखिरी पौड़ी तिलक गया ते वारी गई।
कहे अवतार चैरासी वाली घोल कमाई सारी गई।।
भाव मानव योनी में ही परमात्मा की पहचान सम्भव है, यही एक अवसर है। क्योंकि:-
पौड़ी छुटकी हथ न आवे, मानुष अहला जनम गवावे।
यह वेशकीमती अवसर हाथ से निकल न जाए इसके लिए बार-बार ग्रंथों के कथन हमें झिंझोड़ते हैं। हीरे जैसा जनम इसको कौड़ियों के भाव न गंवा दे, इसके प्रति जागरूक होने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाः-
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥ 8-26
संसार से जाने के (दो मार्ग) अंधकार और प्रकाश हैं यही संसार का नियम है। जो रौशनी में जाते हैं वे लौटकर नहीं आते, दूसरे बार-बार आते हैं। भाव जिनके पास परमात्मा का ज्ञान है, परमात्मा को प्राप्त किया है, इसे जाना है वे रौशनी में दुनिया से जाता है। ज्ञान के प्रकाश को पाकर जीवन मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष पा जाते हैं, परमात्मा में ही समा जाते हैं। गीता के चैथे अध्याय के नौंवे श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।4ण्9।।
मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) है जो इन्हें तत्व रूप (निराकार रूप) में जानते हैं। उनका पुनः जन्म नहीं होता, वे मेरे को प्राप्त होते हैं
ज्यों जल में जल आए खटाना,
त्यों जोति संग जोत समाना।
जैसे जल को जल में डाल दें वैसे ही यह आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। जो परमात्मा को तत्व रूप में जानते हैं केवल उनके दिव्य जन्म और उनकी अलौकिक लीलाओं के साथ ही नहीं जुड़े रहते।
अपने इस निज स्वरूप को जानने का मार्ग धर्म ग्रंथों में एक ही बताया गया है। यह केवल गुरू की कृपा से ही सम्भव है। अपने यत्नों से इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। राम चरित मानस में लिखा हैः-
श्री गुरू पद नख मणि गण जोति।
सुमरित दिव्य दृष्टि हिय होती।।
दलन मोहतम सो सुप्रकासु।
भड़े भाग उर आवे जासु।।
श्री (जीवित) गुरू के चरण और नाखुन मणियों के समूह के समान चमकते हैं। उनकी दिव्य दृष्टि का स्मरण हृदय को पुलकित करता है। जिस गुरू ने मोह के घोर अंधकार को दूर करके उजाला कर दिया ऐसा वो हृदय बढ़ा भाग्यशाली है, जिसमें यह भाव आ जाता है। मानव कई अन्य साधनों से परमात्मा की प्राप्ति का प्रयास करता है, परन्तु ग्रंथों में लिखा है बिन गुरू भवनिधि तरहिं न कोई।
ज्यों विरंच शंकर सम होई।।
बिना गुरू के चाहे वे शंकर या ब्रह्मा के समान ही हो कोई भव सागर से पार नहीं हुआ आदि ग्रंथ में लिखा हैः-
बिन सत्गुरू किने न पाओ, बिन सत्गुरू किने न पाया।
सत्गुरू विच आप रखियन, कर परगट दिखलाया।
सत्गुरू प्रकट कर के परमात्मा के दर्शन कराता है। गुरू गीता में लिखा हैः-
अज्ञान तिमिर अन्धस्य, ज्ञान अंजन श्लाक्या।
मिलितम् येन् चक्षु, तस्मै श्री गुरूवेः नमः।।
श्री गुरू भाव शरीर में जो गुरू है उन्होंने ज्ञान के अंजन की सलाई डाल कर घोर अंधकार को समाप्त कर दिया। जिस गुरू से ये चक्षु मिले ऐसे गुरू को बार-बार नमस्कार। गुरू गीता में आगे इस प्रकार लिखाः-
अंखड मंडलाकार व्याप्तम् येन् चराचरम्।
तत् पदम् दर्शित्म् तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
परमात्मा जो खंडित नहीं होता (टुकड़े नहीं होता) जो चर और अचर चलायमान वस्तु अथवा न चलने वाली वस्तु में व्याप्त है। ऐसे परमात्मा के दर्शन कराए ऐसे श्री गुरू को मेरा बार-बार नमस्कार।
श्रीमद्भागवत् के चैथे स्कन्ध के दूसरे भाग (29, 48) में लिखा हैः-
स्व लोकम् न विदुः ते वै यत्र देवो जनार्दन।
आहू धूर्मधियो वेदम् सकर्म कम तत् विदः।।
जो अपने घर को नहीं जानते, वे अल्पज्ञानी तत्व को न जानकर सकाम कर्मों को हीं भगवान मानते हैं। इस श्लोक में स्पष्ट किया है कि अनुष्ठान व अच्छे कर्म इन्द्रियों से किए गए इन्द्रियों को ही संतुष्ट करते हैं। अपने घर को, अपने मूल रूप को आत्मा के द्वारा ही जानकर जीवन को सार्थक किया जा सकता है। आदि शंकराचार्य जी ने छठी शताब्दी में लिखा हैः-
कुरूते गंगासागर गमनम् व्रत पालनम् अथवा तीर्थन्।
ज्ञान विहिनः सर्वम् एतेन् मुक्तिम् भजति न जन्म शतेन।।
अर्थातः- गंगा सागर स्नान के लिए जाए, व्रत पालन अथवा दान करें। सैंकड़ों जन्मों तक भी यह सब करें फिर भी ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं।
ब्रह्मतंत्रसार उपनिषद में इस प्रकार लिखाः-
ज्ञानात् मोक्षम् अवाप्नोति तस्मात् ज्ञानम् परात्परम्।
अतो या ज्ञान दानेहि न क्षमः त्यजेत् गुरूम्।।
ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है इसीलिए ज्ञान सबसे उपर है। जो गुरू ज्ञान न उजाला न दे उसे तत्क्षण त्याग देना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में इसे पाने का मार्ग बतायाः-
न अहम् वेदैः न तपसा न दानेन् न च इज्जया।
शक्यः एवम् विधः द्रष्टुम दृष्टवान् असि माम् यथा।। 11-53
मैं न वेदों के पठन पाठन से न तप से न दान से न पूजा यज्ञ आदि से जाना जा सकता हूॅं। मैं देखा और जानने योग्य हूॅं जैसे देखने वाले ने देखा है (उसके द्वारा) आगे लिखा हैः-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4ण्34।।
इस (परमात्मा) को जानो चरणों में नमस्कार करके, विनय पूर्वक प्रश्न करके, सेवा करके वो ज्ञानी जन जिनके पास ज्ञान है जिन्होंने तत्व के दर्शन किए है वे तुझे ज्ञान उपदेश देंगे, तत्व (परमात्मा) के दर्शन करा देंगे, जिन्हें जिन्हें ये ज्ञान प्राप्त हुआ, उन्होंने आगे संदेश दिया।
पाया ए किछ पाया ए मेरे सत्गुरू अलख लखाया ए।
मेरे सत्गुरू ने वो लक्ष्य (जो कठिन लक्ष्य था अलख था) उसकी लखता करा दी भक्त मीरा जी कह उठी
पायो री मैने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सत्गुरू कर किरपा अपनायो।।
यह कृपा साध्य विषय है जो सत्गुरू की कृपा से होता है अवतार बाणी में लिखा है
पूरा मुरशद मिलया मैनू आना जाना मुक गया।
इस लक्ष्य को पाकर यह लोक भी आनंदमयी हो जाता है।
लोक सुखी, परलोक सुहेले, नानक हर प्रभ आपे मेले।।
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